PAAP - PUNY –पाप और पुण्य
दूसरों को दुःख देना ही नहीं स्वयं को भी दुःख देना पाप है और दूसरो को ही नहीं स्वयं को भी आनंदित रखने का कोई भी प्रयास मात्र पुण्य ही है. वैसे इस पूरे संसार में कोई भी काम पाप और पुण्य की श्रेणी में नहीं आता है. खाली मान्यताये बस है. इस संसार के मूल्यों का कोई मूल्य नहीं है यदि आप अध्यात्मिक चेतना है,जागृत है तो और यदि आप सांसारिक है तो कुछ मूल्य बचा रहता है जिसे ही लोग पाप और पुण्य की श्रेणी में रखते है. हां, नैतिक और अनैतिक हो सकते है पर किसी कार्य से पुण्य और पाप नहीं होता है यह सिर्फ और सिर्फ मान्यताओं का ही खेल है. शास्त्रों में पाप-पुण्य का भी उल्लेख बताया गया है जो हम जैसे ही किसी संसारी ने ही रचा होंगा. जागृत चेतना इन क्रिया-काण्डो में नहीं उलझना चाहेगी. धर्मं ग्रंथों में पाप पुण्य का जहां तक सवाल है तो वह भी कल्पनाओ के जगत का ही प्रतिबिम्ब मालूम होता है. लेकिन जिन्होंने जाना है स्वयं का अस्तित्व उन्होंने कभी भी पाप-पुण्य और इस तरह के किसी आडम्बर में उलझाना उचित नही समझ मुक्त होने का मार्ग सुझाया है. लेकिन लोग तो आखिर लोग ठहरे वे अंधमान्यताओ के भ्रम जाल बुनते है और फिर उसमे ही फसकर मकड़ी की तरह एक दिन समाप्त हो जाया करते है इसलिए उन्हें ज्यादा महत्त्व ना देते हुआ हमें जीवन को और ज्यादा आनंदित कैसे बनाया जाये इस बावत विचार कर दिनचर्या निर्धारित करना चाहिए. पाप-पुण्य का जगत कोरी कल्पनाओ का जगत है जिसमे समय जाया ना कर यतार्थ की बातो में समय खर्च करना चाहिए.
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